दुर्गा कवच
नारायणुवाच
ॐ दुर्गेति चतुर्थ्यन्तं स्वाहान्तो में शिरोऽवतु ||
मन्त्रःषडक्षरोऽयं च भक्तानां कल्पपादपः |
विचारो नास्ति वेदेषु ग्रहणे च मनोर्मुने ||
मन्त्रग्रहणमात्रेण विष्णुतुल्यो भवेन्नरः |
मम वक्त्रं सदा पातु ॐ दुर्गायै नमोऽन्ततः ||
ॐ दुर्गे रक्ष इति च कण्ठं पातु सदा मम |
ॐ ह्रीं श्रीं इति मन्त्रोऽयं स्कन्धं पातु निरन्तरम् ||
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं इति पृष्ठं च पातु मे सर्वतः सदा |
ह्रीं मे वक्षःस्थलं पातु हस्तं श्रीमिति संततम् ||
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं पातु सर्वाङ्गं स्वप्ने जागरणे तथा |
प्राच्यां मां पातु प्रकृतिः पातु वह्नौ च चण्डिका ||
दक्षिणे भद्रकाली च नैऋते च महेश्वरी |
वारुणे पातु वाराही वायव्यां सर्वमङ्गला ||
उत्तरे वैष्णवी पातु तथैशान्यां शिवप्रिया |
जले स्थले चान्तरिक्षे पातु मां जगदम्बिका ||
इति ते कथितं वत्स कवचं च सुदुर्लभम् |
यस्मै कस्मै न दातव्यं प्रवक्तव्यं न कस्यचित् ||
गुरुमभ्यर्च्य विधिवद्वस्त्रालङ्कारचन्दनैः |
कवचं धारयेद्यस्तु सोऽपि विष्णुर्न संशयः ||
भ्रमणे सर्वतीर्थानां पृथिव्याश्च प्रदक्षिणे |
यत् फलं लभते लोकस्तदेतद्धारणे मुने ||
पञ्चलक्षजपेनैव सिद्धमेतद्भवेद् ध्रुवम् |
लोकं च सिद्धकवचं नास्त्रं विध्यति सङ्कटे ||
न तस्य मृत्युर्भवति जले वह्नौ विशेद् ध्रुवम् |
जिवन्मुक्तो भवेत् सोऽपि सर्वसिद्धेश्वरः स्वयम् ||
यदि स्यात् सिद्धकवचो विष्णुतुल्यो भवेद् ध्रुवम् |
|| नारदजीने कहा ||
समस्त धर्मोंके ज्ञाता तथा सम्पूर्ण ज्ञानमें विशारद भगवान् |
ब्रम्हाण्ड मोहन नामक प्रकृतिकवचका वर्णन कीजिये |
|| भगवान् नारायण बोले ||
वत्स, सुनो मैं उस परम दुर्लभ कवचका वर्णन करता हूँ |
पूर्वकालमें साक्षात् श्रीकृष्णने ही ब्रह्माजीको इस कवचका उपदेश दिया था |
फिर ब्रह्माजीने गङ्गाजीके तटपर धर्मके प्रति इस सम्पूर्ण कवचका वर्णन किया था |
फिर धर्मने पुष्करतीर्थमें मुझे कृपापूर्वक इसका उपदेश दिया,
यह वही कवच है, जिसे पूर्वकालमें धारण करके त्रिपुरारि शिवने त्रिपुरसुरका वध किया था और ब्रह्माजीने जिसे धारण करके मधु और
कैटभसे प्राप्त होनेवाले भयको त्याग दिया था |
जिसे धारण करके भद्रकालीने रक्तबीजका संहार किया,
देवराज इन्द्रने खोयी हुई राज्य लक्ष्मी प्राप्त्त की, महाकाल चिरजीवी और धार्मिक हुए, नन्दी महाज्ञानी होकर सानन्द जीवन बिताने लगा,
परशुरामजी शत्रुओंको भय देनेवाले महान् योद्धा बन गये तथा
जिसे धारण करके ज्ञानिशिरोमणिदुर्वासा भगवान् शिवके तुल्य गये |
ॐ दुर्गायै स्वाहा यह मन्त्र मेरे मस्तककी रक्षा करे |
इस मन्त्रमें छः अक्षर हैं |
यह भक्तोंके लिये कल्पवृक्षके समान है |
मुने, इस मन्त्रको ग्रहण करनेके विषयमें वेदोंमें किसी बातका विचार नहीं किया गया है |मन्त्रको ग्रहण करनेमात्रसे मनुष्य विष्णुके समान हो जाता है |
ॐ दुर्गायै नमः
यह मन्त्र सदा मेरे मुखकी रक्षा करे |
ॐ दुर्गे रक्ष
यह मन्त्र सदा मेरे कण्ठकी रक्षा करे |
ॐ ह्रीं श्रीं
यह मन्त्र निरन्तर कंधेका संरक्षण करे |
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं
यह मंत्र सदा सब ओरसे मेरे पृष्ठभागका पालन करे |
ह्रीं
मेरे वक्षःस्थलकी और
श्रीं
सदा मेरे हाथकी रक्षा करे |
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं
यह मन्त्र सोते और जागते समय सदा मेरे सर्वाङ्गका संरक्षम करे |
पूर्वदिशामें प्रकृति मेरी रक्षा करे |
अग्निकोणमें चण्डिका रक्षा करे |
दक्षिणदिशामें भद्रकाली, नैरॄत्यकोणमें महेश्वरी, पश्चिमदिशामें वाराही और वायव्यकोणमें सर्वमङ्गला मेरा संरक्षण करे |
उत्तरदिशामें वैष्णवी, ईशानकोणमें शिवप्रिया तथा जल, थल और आकाशमें जगदम्बिका मेरा पालन करे |
वत्स, यह परम दुर्लभ कवच मैंने तुमसे कहा है | इसका उपदेश हर एकको नहीं
देना चाहिये और न किसीके सामने इसका पवचन ही करना चाहिये |
जो वस्त्र, आभूषण और चन्द्रमसे गुरुकी विधिवत् पूजा करके इस कवचको धारण करता है, वह विष्णु ही है, इसमें कोई संशय नहीं है |
मुने, सम्पूर्ण तीर्थोंकी यात्रा और पृथ्वीकी परिक्रमा करनेपर मनुष्यको जो फल मिलता है, वही इस कवचको धारण करनेसे मिल जाता है |
पाँच लाख जप करनेसे निश्चय ही यह कवच सिद्ध हो जाता है |
जिसने कवचको सिद्ध कर लिया है, उस मनुष्यको रणसंकटमें अस्त्र नहीं बेधता है |
वह जल या अग्निमें प्रवेश कर सकता है |
वहाँ उसके मृत्यु नहीं होती है |
वह सम्पूर्ण सिद्धोंका ईश्वर एवं जीवन्मुक्त हो जाता है |
जिसको यह कवच सिद्ध हो गया है,
वह निश्चय ही भगवान् विष्णुके समान हो जाता है |
मुने, इस प्रकार प्रकृतिखण्डका वर्णन किया गया, जो अमृतकी खाँड़से भी अधिक मधुर है | जिन्हें मूलप्रकृति कहते हैं तथा जिनके पुत्र गणेश हैं,
उस देवी पार्वतीने श्रीकृष्णका व्रत करके ही गणपति जैसा पुत्र प्राप्त किया था |
साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण अपने अंशसे गणेश हुए थे |
यह प्रकृतिखण्ड सुननेमें सुखद और सुधाके समान मधुर है |
इसे सुनकर वक्तोको दही, अन्न भोजन करावे और उसे सुवर्ण दान दे |
बछड़ेसहित सुन्दर गौका भक्तिपूर्वक दान करे |
मुने, वाचकको वस्त्र, आभूषण तथा रत्न देकर संतुष्ट करे |
पुष्प, आभूषण, वस्त्र तथा नाना प्रकारके उपहार ले भक्त्ति और श्रद्धाके साथ पुस्तककी पूजा करे | जो ऐसा करके कथा सुनता है,
उसपर भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं |
उसके पुत्र पौत्र आदिकी वृद्धि होती है |
वह भगवान् की कृपासे यशस्वी होता हैं और अन्तमें वह गोलोकको प्राप्त होता है |
उसे श्रीकृष्णका दास्यभाव सुलभ होता है तथा भगवान् श्रीकृष्णमें उसकी अविचल भक्ति हो जाती है |
|| प्रकृतिखण्ड सम्पूर्ण ||
|| श्री दुर्गा कवच सम्पूर्ण ||
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