कुशपवित्र धारण
कुशपवित्र धारण |
स्नान, दान, जप, होम, स्वाध्याय, संध्योपासन,
पितृ कार्य और अभिवादनमें दोनों हाथोंमें कुश धारण करना चाहिये |
बायें हाथमें कुश और दायें हाथमें पवित्रको धारण करना चाहिये |
जो द्विज दानों हाथोंमें कुश धारण करके आचमन करता है, उसका फल सोमपान है |
इस प्रकार आचमन करके वह सोमपानका फल प्राप्त करता है |
उपर्युक्त वचनोंसे कुश धारणका महत्त्व स्पष्ट होता है |
अब यह बताया जाता है कि किस हाथमें कितने कुश धारण करने चाहिये |
सुमन्तका वचन है दायें हाथोमें दो कुशोंकी बनी हुई पवित्री धारण करे, उन दोनों कुशोंके मूल और अग्रभाग तो रहें, गर्भ निकाल देना चाहिये |
बायें हाथोमें तीन कुश धारण करे, सभी कार्योंमें यही नियम है |
पवित्रकयुक्त हाथसे ही आचमन करना चाहीये |
आचमनसे पवित्रक उच्छिष्ट नहीं होता, परंतु भोजनकालमें धारण किये हुए पवित्रकको तो भोजनके पश्चात् अवश्य त्याग देना चाहिये |
कुशका पवित्रक न मिलनेपर काशका पवित्रक बना लेना चाहिये,
क्योंकि काश भी कुशके ही समान है |
यदि काश भी न मिल सके तो अन्य दर्भोंसे काम लेना चाहिये |
कुश, काश, शर, दूब, जौ, गेहूँके पौदे, बल्वज, सोना, चाँदी तथा ताँबा ये दस प्रकारके दर्भ होते हैं |
सोने, चाँदी या ताँबेकी अँगूठी बनाकर पहन लेनेसे वह सदा ही पवित्रकका काम देती है और उसके उच्छिष्ट होनेका भी भय नहीं रहता |
स्नाने दाने जपे होमे स्वाध्याये पितृकर्मणि |
करौ सदर्भौ कुर्वीत तथा संध्याभिवादने ||
उभयत्र स्थितैर्दर्भैः समाचामति यो द्विजः |
सोमपानं फलं तस्य भुक्त्वा यज्ञफलं भवेत् ||
समूलाग्रौ विगर्भै तु कुशो द्वौ दक्षिणे करे |
तु भुक्तच्छिष्टं तु वर्जयेत् |
भोजन के बाद पुरानी पवित्री ( कुशा ) त्याग करे |
कुशाभावे तू काशाः स्युः काशाः कुशसमाः स्मृताः |
काशाभावे गृहीतव्या अन्ये दर्भा यथोचिताः ||
कुशाः काशाः शरा दूर्वा यवगोधूमबल्वजाः |
सुवर्णं राजतं ताम्रं दश दर्भाः प्रकीर्तितः || कातीयभाष्य ||
||
Tags:
Karmkand